Friday, August 14, 2020

लोकतंत्र में वर्चस्व की सत्ता।

 लोकतंत्र में वर्चस्व की सत्ता।  

मोदी जी की दूसरी पारी का एक साल का मूल्यांकन। 

मोदी जी के एक साल का मूल्यांकन किया जाए तो ऐसा कुछ नहीं लगता जिसका उल्लेख किया जाए हां, इस दौरान उन्होंने अपने विरोधी स्वर को दबाने का काम पूरे जोर शोर से किया है और यह दिखाने की कोशिश की गयी है कि अब देश में वही व्यक्ति या समूह चैन से रह पाएगा जो उनकी हाँ में हाँ मिलाएगए । 

भाजपा में मोदी जी के बाद वैसे भी अमित शाह सबसे मज़बूत और ताक़तवर नेता हैं।  उन्हें गृहमंत्री बनाने के पीछे भी यही उद्देश्य है कि पूरे देश पर राजी, गैर राजी राज किया जाए।  इसी वजह से उन्होंने सबसे पहले उन कानूनों को पास कराया जिससे उनकी ताक़त में इजाफा हो।  इसके लिए जम्मू कश्मीर में धारा 370 , नागरिकता संशोधन अधिनियम यूएपीए ( Unlawful Activities Prevention Act ) को संसद से पास कराया। 

धारा 370  क्या है ?

इससे पहले तो यह समझने की बात है कि धारा 370 है क्या। यह एक ऐसी धारा है जो जम्मू कश्मीर राज्य को विशेष दर्ज़ा प्रदान करती है i धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार संसद को जम्मू कश्मीर राज्य के बारे में रक्षा, विदेशी मामले और संचार के विषय में क़ानून बनाने का अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से सम्बंधित क़ानून को लागू करने के लिए केंद्र को राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है या राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए।  हालांकि आजादी के बाद इस धारा में अनेक संशोधन किए गए बल्कि एक तरह से यह कहना अधिक उचित होगा कि इस धारा को बहुत हद तक कमज़ोर किया गया।  पर यह भाजपा का यह मूल एजेंडा रहा है तो यह स्वाभाविक है कि वह इसको हटाने का श्रेय खुद लेना चाहेगी।  यह दोषपूर्ण धारा हटाई गयी, बहुत अच्छी बात है।  पर जिस तरह से हटाई गयी उससे यही प्रतीत हुआ कि राज्य की जनता के हितों से ऊपर केंद्र सरकार का हित दिखाई दिया।  अब जम्मू कश्मीर में केंद्र की सत्ता रहेगी और वह जैसे चाहेगी, वैसा होगा i यदि राज्य की जनता को विश्वास में लिया जाता तो बहुत अच्छा होता।  आज जबकि सारा कामकाज इंटरनेट पर आश्रित है, वहाँ की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।  इस धारा 370 को हटाने से लगभग 40 हज़ार करोड़ का नुकसान और लगभग 5 लाख लोगों की नौकरी चली गयी।  धारा 370 हटे, इसमें किसी को क्यों कोई परेशानी होगी ? पर जिस तरह से यह धारा हटाई गयी उसे बचा जा सकता था।  सारा कुछ चौपट करके कुछ किया जाए तो वह किस काम का ?  यह आश्चर्य की बात है कि देश की किसी भी विपक्ष की पार्टी को कश्मीर में नहीं घुसने दिया i क़ानून बनाया, अच्छा है i पर यदि राज्य की जनता को विश्वास में ले लिया जाता तो रास्ता और भी सुलभ हो जाता।  एक तरह से डंडे के बल पर 370  हटाई गयी।  इसके बाद दूसरा बिल नागरिकता के ऊपर लाया गया।  

नागरिकता संशोधन क़ानून

इस क़ानून की कुल 6 धाराओं में से धारा 2 के अनुसार अवैध प्रवासी या घुसपेंठिया की परिभाषा को स्पष्ट किया गया है कि 31 दिसंबर 2014 से पूर्व भारत में प्रवेश पाने वाले अफगानिस्तान,बांग्ला देश पाकिस्तान के हिन्दू,सिख, बौद्ध,जैन,पारसी और ईसाई समुदाय के व्यक्तियों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगए। 

असल में इस नागरिकता संशोधन क़ानून की जरूरत क्यों पड़ी पहले इसको समझना जरूरी है।  असम में एनआरसी की प्रक्रिया अपनाई गयी अर्थात, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के अनुसार यह जांच करनी थी कि असम में कितने अवैध प्रवासी हैं।  सरकार का ऐसा अनुमान था कि अवैध प्रवासियों में मुसलमानों की संख्या अधिक होगी।  पर जांच में पाया गया कि कुल 19 लाख प्रवासियों में 4 लाख के करीब विदेशी मुस्लिम हैं बाकी 14 लाख हिन्दू हैं।  बाद में इस कसरत को बंद कर दिया गया।  अब हिन्दू वोटों का ध्यान रखते हुए एक रणनीति के तहत यह बिल लाया गया।  यह स्वाभाविक है जिन गैर मुस्लिमों को नागरिकता दी जाएगी वे भाजपा का ही समर्थन करेंग। 

इस बिल का देशव्यापी विरोध हुआ और पूरे देश में इसका असर दिखाई दिया। देश के लगभग 100 शहरों में आन्दोलन हुआ।  जे.एन.यू. जामिया अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के अलावा देश विदेश के अनेक छात्र संगठनों ने भी इस क़ानून का विरोध किया। 

केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश की सरकार ने इसके बहाने लोगों पर घोर अत्याचार किया।  मुस्लिम पढी लिखी महिलाओं को यहाँ तक कि गर्भवती महिलाओं तक को जेल में ठूंस दिया गया।  नागरिकता क़ानून का विरोध करने वालों को देशद्रोही बताया गया। 

नागरिकता संशोशन क़ानून  2019 , धर्म के आधार पर अवैध घुसपेंठियों को उनकी भारत में घुसपेंठ की तिथि से नागरिकता के लिए प्रावधान करने वाला क़ानून वर्तमान परिपेक्ष्य में गैर जरूरी तो है ही लेकिन इसकी संवैधानिकता पर भी गंभीर सवाल उठाना स्वाभाविक है।  इस क़ानून के कारण देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी यह सन्देश जा रहा है कि यह क़ानून मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला और भारत के सर्वधर्म समभाव की विश्व छवि को खराब करने वाला है। 

अर्थात यह क़ानून भी डंडे के बल पर लागू किया गया।

यू..पी.. क़ानून ( Unlawful Activities Prevention Act )

      ( गैर कानूनी गतिविधियाँ रोकथाम क़ानून )

देश में आतंकवाद की समस्या को देखते हुए आतंकी संगठनों और आतंकवादियों की नकेल कसने के लिए यह क़ानून बनाया गया।  इस क़ानून को बनने के बाद सरकार किसी भी व्यक्ति को आतंकी घोषित किया जा सकता है।  आतंकी होने के नाम पर उसकी संपत्ति जब्त की जा सकती है।  इसके अलावा इस क़ानून ने NIA (राष्ट्रीय जांच एजेंसी ) को असीमित अधिकार दे दिए हैं।  इस क़ानून का मकसद आतंकवाद की घटनाओं में कमी लाना, आतंकी घटनाओं की तीव्र गति से जांच करना और आतंकवादियों को जल्दी सज़ा दिलवाना है।  दरअसल,देश की एकता और अखंडता पर चोट करने वाले के खिलाफ सरकार को असीमित अधिकार दे दिए हैं।  विपक्ष का आरोप है कि सरकार उसकी मशीनरी इसका गलत इस्तेमाल कर सकती है।  इसके अनुसार सरकार किसी भी तरह से आतंकी गतिविधियों में शामिल संगठन या व्यक्ति को आतंकी घोषित कर सकती है। 

सरकार सबूत होने की स्थिति में भी सिर्फ शक के आधार पर भी किसी को आतंकी घोषित कर सकती है। 

राष्ट्रीय जांच एजेंसी को इस क़ानून में यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी राज्य में जाकर कहीं भी छापा डाल सकती है।   इसके लिए उसे सम्बंधित राज्य की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।  

विपक्ष की यह आशंका रही कि जिस तरह की राजनीति भाजपा नेता करते हैं उसमे यह बहुत गुंजाइश है कि ये लोग इस क़ानून का दुरूपयोग करेंगे।  योगी जी तो शायद इस तरह के काण्ड करके अपना नामगिनीज बुकमें लिखवाने के लिए आतुर हैं।  एक साल में सबसे ज्यादाFIR दर्ज कराने वाले मुख्यमंत्रीबन जाएंगे।  तालाबंदी के दौरान भी अनेक छात्र छात्राओं सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस क़ानून का दुरूपयोग किया गया।  यानी जिसने भी विरोध करने की कोशिश की उन्हें परेशान किया गया, उसके जीवन को बर्बाद करने के षड्यंत्र रचे।  अर्थात, यह क़ानून भी डंडे के बल पर पास हुआ। 

इसी बीच दिल्ली विधानसभा चुनाव का समय गया। 

    दिल्ली में भाजपा को यह आभास था कि आम आदमी पार्टी ने आम जनता के लिए इतना काम कर दिया है कि उसे हराना नामुमकिन है।  अमित शाह ने दिल्ली के चुनाव की बागडोर अपने हाथ में ले ली।  उन्होंने चुनाव को एक रंग में रंगना शुरू कर दिया।  चुनाव में खुलकर यानी डंके की चोट पर ध्रुवीकरण का प्रयोग किया। 

     भाजपा के उन सभी नेताओं को चुनाव में लगाया गया जो समाज को बांटने में ज्यादा भरोसा करते हैं जिनकी भाषा हमेशा साम्प्रदायिक आपत्तिजनक रही है।  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री इस मामले में अव्वल रहे हैं।  वे तो जैसे मौके की तलाश में रहते हैं कि कब विघटन की राजनीति करने का अवसर मिले और कब खुलकर हिन्दू मुसलमान किया जाए।  चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पडा। 

अब तक भी दिल्ली के अनेक हिस्सों में नागरिकता क़ानून का विरोध हो रहा था और सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी धरना चल रहा था।  इसी बीच आम आदमी पार्टी से भाजपा में आए कपिल मिश्रा को इस काम पर लगाया गया कि किसी भी तरह दिल्ली का धरना ख़त्म करवाना है और कुछ नया करना है।  कपिल मिश्रा को भाजपा में अपनी वफादारी प्रकट करनी थी कपिल मिश्रा ने दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में ऐसे बयान दिए जिससे माहौ बिगड़ना स्वाभाविक था।  दंगा भड़क गया।  इन दंगों में करीब 60-70 लोग मारे गए। 

अब दंगा हुआ तो इसकी शल्यचिकित्सा तो करनी थी, जनता की आँखों में धुल भी झौकनी थी तो एक औपचारिक जांच कराई गयी।  पुलिस ने जो आरोप पत्र दाखिल किया उसमे आम आदमी पार्टी के निष्काषित पार्षद ताहिर हुसैन को मुख्य आरोपी बनाया गया जिसे एक इंस्पेक्टर की हत्या के लिए जिम्मेदार बताया गया।  उस पर गैर कानूनी गतिविधियाँ क़ानून के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया।  समाजसेवी योगेन्द्र यादव जैसे स्कोलर को इसमें घसीटने की कोशिश की गयी।  कपिल मिश्रा जिसने खुलेआम दंगा भड़काया।  जिसने पुलिस की मौजूदगी में एक जाति विशेष के लोगों को धमकी दी, उनके जुलुस निकाला पर उसका नाम आरोप पत्र में नहीं आया।  

हाई कोर्ट के जज ने कपिल मिश्रा जैसे लोगों के खिलाफ कार्यवाही की बात की तो उस जज को रातों रात ट्रांसफर करवा दिया गया।  एक तरह से सीधा सन्देश था कि जो भी इस कानून का विरोध करेगा उसका सही ढंग से इलाज़ किया जाएगा। 

कोरोना का प्रकोप

दिल्ली दंगों की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि कोरोना का प्रकोप शुरू हो गया।  30 जनवरी को देश में, केरल में कोरोना का पहला मामला प्रकाश में आया।  उस समय मोदी जी की सरकार अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप से स्वागत की तैयारी में लगी थी i नमस्ते ट्रंप की तैयारी चल रही थी।  राहुल गाधी केरल का प्रतिनिधित्व करते हैं, केरल से वे सासंद हैं।  उस समय राहुल गांधी ने सरकार को चेताया था कि यह एक भयानक बीमारी है और यदि समय रहते इसके इलाज़ पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह बहुत ही भयावह रूप ले सकती है i राहुल गाधी कोई बात कहें तो उसे तो गंभीरता से लेना ही नहीं है।  राहुल गांधी भाजपा की नज़र में बेवकूफ हैं,पप्पू हैं,जोकर हैं आदि,आदि हैं।  यहाँ तक कि देश के स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन तक ने राहुल गांधी को गलत बताया और कहा कि राहुल गांधी तो अफवाह फैलाने का काम करते हैं।  इसका नतीज़ा सामने है।  आज देश में 22 लाख से ऊपर मामले हैं।  यदि 30 जनवरी के आसपास ढंग से गौर कर लिया जाता तो हालत इतनी खराब नहीं होती।  बाहर यानी विदेश से आने वाले यात्रियों की निगरानी और सघन जांच की जाती तो शायद यह हाल नहीं होता।  महामारी की सूचना के बावजूद 23 मार्च तक हवाई अड्डों पर जांच की कोई व्यवस्था नहीं थी।  24 मार्च तक देश के सभी बड़े मंदिर खुले हुए थे।  संसद चल रही थी।  मध्य प्रदेश के विधायकों की अदला बदली हो रही थी।  24मार्च से मामलों की संख्या बढ़ने लगी।  उस वक़्त तक सरकार के पास बीमारी से लड़ने का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं था।  बल्कि उस समय तक केंद्र सरकार मास्क अन्य चिकित्सीय उपकरणों का निर्यात कर रही थी।  डॉक्टरों से लेकर अस्पतालों में उपकरण नहीं थे।  जब सरकार को लगा कि अब हाथ से मामला निकल सकता है और विपक्ष मुद्दे को उठा सकता है तो बिना सोचे समझे तुरंत तालाबंदी का एलान किया गया।  बस,रेल और हवाई सब सेवाएं बंद कर दी गईं।  इसी बीच तबलीगी जमात का मामला प्रकाश में आया।  भाजपा को तो जैसे डूबते को सहारा मिल गया।  भाजपा का हर छोटा बड़ा नेता तबलीगी जमात पर प्रवचन दे रहा था।  पूरी भाजपा और उसका पिट्ठू मीडिया देश में आए कोरोना के लिए तबलीगी जमात को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा।  पूरे देश में एक हवा बनाई गयी कि हमारे यहाँ तो सब ठीक था जो कुछ भी हमारे यहाँ बीमारी आई है वह तबलीगी जमात द्वारा लाई गयी है।  चलिए,एक बार को यह मान भी लिया जाए कि जमात ने ही महामारी को फैलाया है तो इसके लिए दोषी कौन है ? यदि हवाई अड्डे पर समय रहते जांच का सही प्रावधान होता तो ये तबलीगी भी नहीं पाते।  यदि फरवरी के महीने में बाहर से आने वाले यात्रियों पर रोक लगा दी जाती तो यह स्थिति इतनी खराब नहीं होती।  इसके अलावा तालाबंदी करते वक़्त यह नहीं सोचा कि जो लोग अपने घरों से अलग हैं, उनको कैसे घर भेजा जाए ? देश में करोड़ों मजदूर अपने घर से बाहर काम कर रहे हैं उन्हें उनके घर तक पहुंचाने की व्यवस्था कैसे की जाएगी ? बसों और परिवहन व्यवस्था के अभाव में वे अपने घर कैसे पहुंचेंगे ? ऐसी स्थिति में भी मजदूरों के पास पैदल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।  नतीजा यह हुआ कि मजदूर चलते चलते मरते रहे।  कई महिलाओं ने रास्ते में ही बच्चों को जन्म दिया।  बीच बीच में प्रधानमंत्री टीवी पर मजदूरों से त्याग करने की अपील कर रहे थे और अपनी चिरपरिचित शैली में प्रवचन दे रहे थे। 

कोरोना को लेकर शुरू शुरू में रोजाना स्वास्थ्य मंत्रालय भारतीय चिकत्सा शोध परिषद् की ओर से प्रेस वार्ता का आयोजन किया जाता रहा फिर जैसे जैसे कोरोना के मामलों की संख्या बढ़ने लगी यह व्यवस्था बंद कर दी गई  आज देश में कोरोना के मरीजों की संख्या लगभग 22 लाख है जिसमे करीब चालीस हज़ार की मौत भी हो चुकी है।  अप्रैल के महीने में एक बार दीए जलवाकर मोदी जी अंतर्ध्यान हो गए फिर आत्मनिर्भर के नारे के साथ प्रकट हुए।  तीसरी तालाबंदी के बाद मोदी जी ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए।  उसके बाद महामारी के लड़ने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को सौंप दी गयी।  अब राज्य सरकारों के पास जैसे जो इंतजाम हैं उसके हिसाब से वे अपना काम कर रही हैं।  यानी अब यदि लोग मरते हैं तो केंद्र सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।  

यानी एक साल में मोदी जी ने अपनी ताक़त बढाने विरोधी स्वर को दबाने के अलावा जनता के लिए कुछ नहीं किया गया।    

आज भाजपा में वे सारी बुराइयां गयी हैं जिनकी वजह से कांग्रेस हारी थी। 

यह लेख वरिष्ठ  सेवी यतेंद्र चौधरी  के अपने विचार हैं। 

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