देश में फैलते कोरोना वाइरस और गिरती अर्थ व्यवस्था पर जनहित में भारत सरकार को नई योजना तैयार करने पर विचार करना चाहिये - प्रो0 डॉ0 आसमी रज़ा
द हिंदू में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा, “ये हमारे देश और दुनिया के लिए असाधारण कठिन समय हैं। COVID-19 से लोग बीमारी और मौत के भय के चपेट में हैं। यह भय सर्वव्यापी है। कोरोना वायरस के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए देश की अक्षमता और बीमारी के लिए एक पुष्ट इलाज के अभाव ने लोगों की चिंताओं को बढ़ा दिया है। लोगों में इस तरह की चिंता की भावना समाज के कामकाज में जबरदस्त उथल-पुथल पैदा कर सकती है। नतीजतन सामान्य सामाजिक व्यवस्था में उथल-पुथल से आजीविका और बड़ी अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। ”
मनमोहन सिंह ने कहा, “आर्थिक संकुचन केवल अर्थशास्त्रियों के विश्लेषण और बहस के लिए जीडीपी नंबर नहीं है। इसका अर्थ है कई वर्षों की प्रगति का उलटा असर हमारे समाज के कमजोर वर्गों की एक बड़ी संख्या गरीबी में लौट सकती है, यह एक विकासशील देश के लिए दुर्लभ घटना है। कई उद्योग बंद हो सकते हैं। गंभीर बेरोजगारी के कारण एक पूरी पीढ़ी खत्म हो सकती है। संकुचित अर्थव्यवस्था के चलते वित्तीय संसाधनों में कमी के कारण अपने बच्चों को खिलाने और पढ़ाने की हमारी क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। आर्थिक संकुचन का घातक प्रभाव लंबा और गहरा है, खासकर गरीबों पर। ”
भारत की गिरती अर्थव्यवस्था को पटरी पर वापस लाने के लिए भारत सरकार को सभी अर्थशास्त्रिओं को विश्वास में ले कर योजनाबद्ध काम करना चाहिए । आर्थिक गतिविधियों में स्लोडाउन बाहरी कारकों जैसे लॉकडाउन और भय से प्रेरित लोगों और कंपनियों का व्यवहार है। हमारी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का आधार पूरे इकोसिस्टम में विश्वास को वापस लाना होगा । लोगों को भी अपने जीवन और आजीविका के बारे में विचार करना चाहिए। उद्यमियों को निवेश को फिर से खोलने और बैंकरों को पूंजी प्रदान करने के बारे में विचार करना चाहिए। “मल्टीलैटर ऑर्गेनाइजेशन को भारत को फंडिंग प्रदान करने के लिए पर्याप्त आत्मविश्वास के साथ विचार कर भारत सरकार के साथ सहोग करना चाहिए। सॉवरेन रेटिंग्स एजेंसियों को अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने और आर्थिक विकास को बहाल करने की भारत की क्षमता के बारे में आश्वस्त होना चाहिए”
विश्व में फैलती महामारी कोवित 19 कोरोना वाइरस का भय यह जान बुझ कर हर देश के नागरिकों में मीडिया तथा अन्य माध्यमों से मनोवैज्ञानिक असर डाला गया है। दूसरी और सोशल मीडिया के माध्यम से ही 19 कोरोना वाइरस के भय का असर कम करने के लिए अमेरिका इस्राइल , स्पेन, इटली, चाइना, के सरकार और बड़े कॉर्पोरेटों के षड्यंत्रों उजागर किया जा रहा है। जिसे वैक्सीन किट और मास्क के पेटेंट को अपने क़ब्ज़े में ले कर वैश्विक बाज़ारों पर क़ब्ज़ा किया जा सके। ताकि नागरिकों में भये बना रहे और सुरक्षा की दृष्टिकोण से वैक्सीन पर विदेशी दवाइयां किट, मास्क इत्यादि हमारे भारत में धड़ल्ले से भारत के नागरिक खरीद कर इस्तिमाल करते रहें - ऑक्सफेम के सर्वे के अनुसार विश्व का सबसे बड़ा खुदरा बाज़ार चाइना की आबादी के अनुपात भारत को ही माना जाता है। इसलिए इसका सबसे बड़ा लाभ भारत से मिलने अधिक उम्मीद है।
जिस प्रकार से मीडिया द्वारा कोविट19 का भये फैलाया जा रहा है इससे मानव जीवन पर मनोवैज्ञानिक इतना बुरा असर पड़ रहा है की भय कारण मानवों में बिमारी उतपन्न हो रही है और उसके कारण मनो मस्तिष्क में अविश्वास की भावना के कारण हृदय गति का रुकना सम्भवता मृत्यु का हों निश्चित है। फिर केवल कोरोना के भये से 2024 तक भारत की एक तिहाई आबादी मौत के आगोश में आने की संभावना बन जाती है। और इस कारण जब लोग अपने कारोबार के लिए घरो से नहीं निकलेंगे तो स्पष्ट है की भारत आर्थिक दृष्टिकोण से इतना कमज़ोर हो सकता है की ना चाहते हुए भी भारत को अन्य देशों से सहायता लेना पड़ सकता तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। भारत के नागरिक उस समय और अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
2019 में दावोस में वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में ऑक्सफैम ने अपनी रिपोर्ट ‘टाइम टू केयर’ में समृद्धि के नाम पर पनप रहे नये नजरिया, विसंगतिपूर्ण आर्थिक संरचना एवं अमीरी गरीबी के बीच बढ़ते फासले की तथ्यपरक प्रभावी प्रस्तुति देते हुए इसे घातक बताया है। आज दुनिया की समृद्धि कुछ लोगों तक केन्द्रित हो गयी है, हमारे देश में भी ऐसी तस्वीर दुनिया की तुलना में अधिक तीव्रता से देखने को मिल रही है। देश में मानवीय मूल्यों और आर्थिक समानता को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है ? इस तरह की मानसिकता राष्ट्र को कहां ले जाएगी ? ये कुछ प्रश्न ऑक्सफैम रिपोर्ट एवं प्रस्तुत होने वाले आम बजट के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं, जिन पर मंथन जरूरी है।
साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, नक्सलवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्तों में दरारें आदि के रूप में देख सकते हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग ही नहीं बल्कि देश का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है। ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर ने कहा कि अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई तब तक नहीं कम होगी, जब तक सरकार की तरफ से इसको लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि असमानता दूर करने के लिए सरकार को गरीबों के लिए विशेष नीतियां अमल में लानी होंगी।
भारत की गिरती अर्थ व्यवस्था पर चिंता कर रहे हैं दिल्ली विश्वविद्यालय अर्थशास्त्र विभाग के प्रो0 डॉ0 आसमी रज़ा - यह उनके विचार है।
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