एस.के. पाण्डेय (प्रो०-इत्तिहासविद्य एवं राजनितिक विशखक)
प्रस्तावना प्रकथन या भूमिका पुस्तक की आत्मा होती है। ऐसा विद्धवता जन की अवधारणा है। आर्थिक न्याय संस्थान के संस्थापक श्री रोशन लाल अग्रवाल द्वारा लिखित पुस्तक " गरीबी नहीं अमीरी रेखा " यह लेखक के स्वाभाविक विचार कम देशकाल और परिस्थितियों की उपज ज़्यादा है। 125 करोड़ की आबादी का देश ज़िंदा जीवन जीने वालों की संख्या बमुश्किल 25 करोड़ है 100 करोड़ की शेष आबादी मरी हुयी ज़िन्दगी जीती है या यूं कहें की रोज़ मरती है रोज़ जीती है।
प्रस्तुत पुस्तक भारत की वर्तमान अर्थ व्यवस्था और रोज़मर्रा के जीवन की ज्वलंत तस्वीर को रेखांकित करती है। देश में व्यप्त आर्थिक समानता और उसके दुषप्रभाव के भाव को प्रदर्शित करने का अपने आप में अनुभव प्रयास किये हुए हैं। इस पुस्तक का मानवीय पक्ष सब से ज्वलंत है की जो पैदा हुआ है वह खायेगा यह उसका नैर्सगिक अधिकार है। यह केवल कल्पनाओं में नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के समग्र वितरण की में भी संविहित है। "कमाने वाला खायेगा की जगह पैदा होने वाला खाने का अधिकार लेकर पैदा होगा। यह मानव जीवन की सबसे बड़ी बीमा है।
ज़रूरत के हिसाब से धन की आवश्यकता हर मानव की है असमान वितरण न केवल अमीरी और गरीबी पैदा करता है बल्कि मानव जीवन को दानव जीवन भी बना देता है। यह मानवीय संस्कृति पर भी कलंक जैसा है। मानव जीवन और संस्कृति को कलंकित होने से बचाने का सुगम प्रयास इस पुस्तक के ज़रिये लेखक द्वारा किया गया है उसके मानवीय पक्ष की सराहना किये बिना मैं नहीं रह सकता।
आदर्श अर्थव्यवस्था की अवधारणा और मूर्त रूप देने की व्यवस्था , वह भी आर्थिक असमानता के बावजूद किन्तु जीवन रक्षक युक्त , जहाँ किसी की प्रतिभा का हनन भी नहीं वही हर किसी के जीवन रक्षक अधिकारों की गारंटी देता है। वास्तव में आदर्श वयवस्था की अवधारणा प्रस्तूत की गयी है जो भारत जैसे देशकी पुरातन संस्कृति में निहित है। मैं यह नहीं जनता की लेखक शैक्षणिक रूप से कितने उन्नत हैं किन्तु यह साबित करता है की व्यवहारिक ज्ञान के बिना सैम्वैधानिक ज्ञान केवल हवा हवाई होता है ऐसा मई महसूस करता हूँ की इस किताब को लिखने से पहले लेखक उन प्रस्थितियों से दो दो हाँथ आज़माएँ हैं।
धन के सदप्रभाव और दुष्प्रवाह दोनों के बीच का केवल संतुलित प्रभाव की अवधारणा और उसे कैसे अभकी जामा पहनाया जा सकता की व्यवस्था सर्वनिहित करते हुए दीं दयाल उपाध्याय के एकात्म मानव वाद के नज़दीक जाने की लेखक की कोशिश अपने आप में अनुभव प्रयास भर नहीं अंगीकार करने की सम्पूर्ण व्यवस्था लिए हैं यदि समाज सरकार और न्याय पूर्ण व्यवस्था इसे आत्मा शांत करें तो निश्चित रूप से देश में एक उन्नत और न्याय पूर्ण व्यवस्था की अस्थापना हो सकती है।
लेखक के विलक्षणता का रोचक पहलु है की इस पुस्तक को आम बोल चाल की भाषा में लिखा गया जिसे हर साक्षर मनुष्य पढ़ और समझ सकता है अर्थ जगत के शब्दों का इस्तेमाल किये बिना अर्थव्यवस्था का सामान्य भाषा में प्रस्तुतिकरण पुस्तक और लेखक दोनों की विलक्षण ता प्रशिक्षित करती है। मैं लेखक के प्रयासों और उनके उद्देश्यों की सफलता की कामना करता हूँ।
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