Tuesday, June 14, 2016

आर्थिक न्याय -

रोशन लाल अग्रवाल (लेखक एवं समीक्षक आर्थिक न्याय) 
सामाजिक व्यवस्था एक व्यापक समझोता है और उस का ही एक महत्वपूर्ण अंग अर्थव्यवस्था है।  सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार न्याय है। और अर्थव्यवस्था उसकी धुूरी है। 
सामाजिक व्यवस्था का मूल उद्देश्य लोगोँ के हितों मेँ होने वाले टकराव को न्याय के आधार पर सुलझाना व सब में सामंजस्य की स्थापना करना है ताकि उनके विवादों को शांतिपूर्वक समाप्त किया जा सके और समाज को विवाद टकराव और युद्ध जेसी विनाशकारी स्थितियों से बचाया जा सके। 
यह समझोता तभी न्यायपूर्ण माना जा सकता है जब यह बिना किसी अज्ञान भय दबाव या मजबूरी की स्थितियो मेँ पूर्ण सत्य पारदर्शिता सद्भाव विश्वास पवित्र मन से किया गया हो। 
ऐसा समझोता ही सब मेँ विश्वास सद्भाव पूरकता संतोष शांति और समृद्धि के उद्देश्योँ को पूरा कर सकता है। 
सारे प्राकृतिक संसाधन ही मूल धन है और हमारे जीवन का आधार है इनके उपभोग के बिना हमारा जीवन नहीँ चल सकता प्रकृति मेँ पाए जाने वाले उपभोग के सभी पदार्थ इंन्हीं प्राकृतिक संसाधन से बनाए जाते है ये प्राकृतिक संसाधन मूल रुप से प्रकृति का वरदान है और किसी व्यक्ति ने इन का निर्माण अपनी शक्ति बुद्धि या क्षमता से नहीँ किया है 
इसलिए इन सभी प्राकृतिक संसाधनो पर सब लोगोँ का मूलभूत समान जन्मसिद्ध अधिकार है और उसका व्यक्ति की योग्यता क्षमता अथवा परिश्रम से कोई संबंध नहीँ और अर्थात इनके कम या अधिक होने से किसी भी व्यक्ति का मूल अधिकार न तो बढता है और न हीँ घटता है। 
क्योंकि यदि हम व्यक्ति के अधिकारोँ का संबंध उसकी उपरोक्त विशेषताओं से जोड़ते है तो उसके आधार पर बनने वाली व्यवस्था न्यायपूर्ण न होकर जंगलराज या जिसकी लाठी उसकी भेंस वाली होगी और उससे समाज मेँ शांति की स्थापना नहीँ की जा सकती। 
इसलिए न्याय के आधार पर एक व्यक्ति का मूलभूत जन्मसिद्ध अधिकार केवल औसत सीमा तक संपत्ति पर ही हो सकता है। इससे अधिक पर नहीँ क्योंकि इससे अधिक पर मूल अधिकार मान लेने से किसी अन्य व्यक्ति के मूल अधिकार का हनन होगा जो उसके साथ अंन्याय है।  
किंतु इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति को अपनी योग्यता क्षमता या पुरुषार्थ पर ही निर्भर रहना होता है।  जो सबकी एक समान न होकर बहुत अलग अलग है। ये विशेषताएँ कुछ लोगो की औसत से कम व अन्य कुछ लोगोँ की बहुत ज्यादा भी हो सकती है और होती ही है। इसी कारण कुछ लोगोँ के पास अपनी उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा कर लेने के बाद भी मूलभूत औसत अधिकार से बहुत अधिक संपत्ति एकत्रित हो सकती है।  जबकि अन्य लोगोँ को अपने मूलभूत अधिकार से बहुत कम आय ही प्राप्त होती हैं, जिससे वे अपने उपभोग की जरुरतोँ को भी ठीक प्रकार से पूरा नहीँ कर पाते। 

इस प्रकार औसत सीमा तक संपत्ति एक व्यक्ति की संग्रह अधिकार की अधिकतम सीमा अर्थात् अमीरी रेखा है जो किसी भी समय निजी संपत्ति की कुल मात्रा को उस समय की जनसंख्या से भाग देकर आसानी से निकाली जा सकती है।
इसलिए न्याय के आधार पर एक नागरिक को औसत सीमा से अधिक संपत्ति का स्वामी न मांन कर उसका प्रबंधक (समाज को कर्जदार) माना जाना चाहिए और मूल सीमा से अधिक संपत्ति पर ब्याज की दर से संपत्ति कर लगाया जाना चाहिए। 
अंय सभी प्रकार के करों (आयकर सहित) समाप्त कर दिया जाना चाहिए जो किसी भी दृष्टि से समाज के लिए हितकारी नहीँ हे ओर सभी प्रकार को षड़यंत्रों को जन्म देते है। 
क्योंकि सारे प्राकृतिक संसाधन ही मूल संपत्ति होते है और इन पर समाज का अर्थ सभी लोगोँ का समान रुप से स्वामित्व होता है।  इसलिए संपत्तिकर से इस प्रकार होने वाली आय पूरे समाज की प्राकृतिक संसाधनो से प्राप्त होने वाली अतिरिक्त आय होती है जिस पर सब का समान अधिकार है।  
इसलिए इस में से सरकार के बजट का खर्च (व्यवस्था के संचालन का खर्च) काटकर शेष राशि को सारे नगरिकों में बिना किसी भेदभाव के लाभांश के रुप मेँ बाँट दिया जाना चाहिए। 
इस प्रकार न्याय के आधार पर हर नागरिक के दो अधिकार होते हैं, पहला मूलभूत स्वामित्व का अधिकार जिसका व्यक्ति की मेहनत से कोई संबंध नहीँ होता है और जो सबका सम्मान होता है। 
दूसरा मेहनत या पुरुषार्थ से प्राप्त अधिकार जो मेहनत के आधार पर सबका कम या अधिक हो सकता है। 
लाभांश स्वामित्व के अधिकार से मिलने वाला समान लाभ है जिसका व्यक्ति की मेहनत से कोई संबंध नहीँ होता। 
भौतिक विज्ञान की उन्नति के कारण प्राकृतिक संसाधनो को उपभोग योग्य बनाने के लिए उन मेँ लगने वाली मेहनत की मात्रा लगातार घटती जा रही है और स्वामित्व के अधिकार का महत्व बरता जा रहा है। और उसके साथ ही लाभांश की मात्रा भी बढ़ती जा रही है। 
आज भी एक व्यक्ति की आय का संबंध उसकी शारीरिक या बौद्धिक मेहनत से न होकर उसके साधनो से स्थापित हो गया है जिसके पास अधिक साधन है उसकी आय ज्यादा है जिसके पास कम साधन है उसकी आय भी उसी अनुपात मेँ बहुत कम है। 
जिस दिन भौतिक विज्ञान इतनी उन्नति कर लेंगे कि उसके सारे कार्य अनेक प्रकार के यंत्र और उपकरणो की सहायता से ही पूरे होने लगेंगे और मेहनत की कोई भूमिका ही नहीँ बचेगी तब समाज के शांतिपूर्ण संचालन का एकमात्र मार्ग लाभांश ही रह जाएगा मेहनत नहीँ। 
हर व्यक्ति चाहता है उसे उसके उपभोग के पदार्थ कम से कम परिश्रम मेँ निरंतर प्राप्त होते रहे और उसे कभी भी अभाव का सामना न करना पड़े।  भौतिक विज्ञान की उन्नति ने मनुष्य की इस चीर संचित अभिलाषा को अच्छी तरह से पूरा किया है। 
अतः अब सब लोगोँ को अपना पेट भरने के लिए किसी प्रकार की मेहनत करने की बाध्यता से मुक्ति मिलनी चाहिए इसे हरामखोरी कहना या गलत मानना पूरी तरह अज्ञान्ता है। 




यह लंबी पोस्ट मुझे इसलिए लिखनी पड़ी है क्यूंकि आपके अनेक गूढ प्रश्नो के उत्तर इस पोस्ट के बिना नहीँ दिए जा सकते अतः आप पहले इस पोस्ट के सभी बिंदुओं पर पूरी गहराई से विचार करेँ और इस के बाद आपके जो प्रश्न बचेंगे उनका मेँ तर्क सहित उत्तर दूँगा। 

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